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भक्ति का अर्थ
मेरा यह आलेख ‘भक्ति का मार्ग’ स्वामी सत्यानंद सरस्वती और स्वामी शिवानंद सरस्वती की शिक्षाओं पर आधारित है। इन महान योगियों की शिक्षाओं से मैंने ऐसा समझा है कि भगवान के लिए सच्चा प्रेम ही भक्ति है। साथ ही यह भी मै विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि हर व्यक्ति भक्ति कर सकता है। भक्ति का मतलब होता है भगवान से प्रेम करना, उनसे रिश्ता जोड़ना। आप कितना भी योग करें, शास्त्र पढ़ें, हवन करें, तपस्या करें, जो कुछ भी करें, इससे ईश्वर की अनुभूति नहीं हो सकती। ईश्वर प्राप्ति का आधार मात्र प्रेम और भक्ति है।
नान्या स्पृहा रधुपते हृदयSस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रधुपुड्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।।
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।
भक्तिं प्रयच्छ रधुपुड्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ।।
हे रघु परिवार के स्वामी – मेरे दिल में और कोई तमन्ना नहीं है,
मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, हे पूरे ब्रह्मांड की आत्मा,
हे रघु परिवार की उत्कृष्ट आत्मा, मुझे अपनी भक्ति प्रदान करें,
कि मैं केवल आप पर निर्भर रहूं, और मेरे मन को इच्छा के रोग से मुक्त करो।
मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ, हे पूरे ब्रह्मांड की आत्मा,
हे रघु परिवार की उत्कृष्ट आत्मा, मुझे अपनी भक्ति प्रदान करें,
कि मैं केवल आप पर निर्भर रहूं, और मेरे मन को इच्छा के रोग से मुक्त करो।
तुलसीदास जी ने अपनी इन पंक्तियों में भक्ति के अर्थ को व्यक्त कर दिया है।
भक्ति में भावना का महत्व
योग में एक शब्द बार बार आता है – भावना। सबके अन्दर भावना है। यह भावना ही भगवान तक पहुँचती है। यही भावना तुम्हारे शत्रु तक तुम्हें पहुँचती है। यही भावना भय के समय तुम्हारे भीतर उत्पन्न होती है। किसी साधारण व्यक्ति से प्रेम करते समय भी तुम्हारे भीतर यही भावना उत्पन्न होती है। भावना एक ही है। पदार्थ एक ही है, आधार एक ही है, केवल लक्ष्य अलग है। अपनी भावना को भगवान की ओर मोड़ते चलो। केवल एक व्यक्ति के साथ अपना रिश्ता खोजना, जो तुम्हारा मालिक है, जो तुम्हारी अन्तरात्मा है और जो तुम्हारे अंदर है, जो तुम्हारे श्वासों का श्वास है, प्राणों का प्राण है, जिसके बल पर तुम जीवित रहते हो। केवल उसके साथ अपना सम्बन्ध खोजते जाओ।
भक्ति इतनी आसान नहीं है, क्योंकि भक्ति का सम्बन्ध तुम्हारी आन्तरिक भावना से है, मन और मस्तिष्क से नहीं। इस भावना को तुम्हें ऐसे व्यक्ति की ओर मोड़ना होता है जिससे तुम प्रेम करते हो, जिसकी ओर मन जाये और थोड़ी देर वहाँ टिक सके। वह भगवान की कोई मूर्ति हो सकती है, कोई प्रतीक हो सकता है, कोई सन्त हो सकते हैं या गुरु भी हो सकते हैं। यदि अभी तक कोई तुम्हारी भावनाओं का केन्द्र नहीं है, तो किसी को अपनी भावनाओं का केन्द्र बनाने की कोशिश करो, अपने व्यक्तित्व को जानने का प्रयास करो।
भगवान से अपना सम्बन्ध पहचाने
संसार में जितने प्राणी हैं, जितनी जीवात्मायें हैं, उन सबका भगवान के साथ कोई-न-कोई सम्बन्ध है। फूल, पत्ता, रूखा-सूखा पेड़, इस सृष्टि की कोई वस्तु ऐसी नहीं जो भगवान से संयुक्त न हो। मगर उनको पता चलना चाहिए कि उनका भगवान के साथ क्या सम्बन्ध है। अगर उस सम्बन्ध की जानकारी हो जाती है, तो भावनायें स्वत: उठने लगती हैं और जो अहंकार की भावना है – कि मैं कर रहा हूँ, वह कम होती है। अपने आपको मानसिक रूप से, भावनात्मक रूप से, आत्मिक रूप से, सर्व प्रकार से उन्हें अर्पित कर दो। उसके बाद मन शान्त हो जाता है। और यही बात हमने योग में सीखी है कि जब तक तुम्हारा मन शान्त नहीं होता, जीवन में कोई आनन्द नहीं है।
किसी के प्रति सजग बनकर जब तुम किसी से प्रेम करते हो, तब पूरा समय ध्यान उसी पर केन्द्रित रहता है। तुम्हें प्रसन्नता का अनुभव होता है। आदमी को अपना मन वहाँ लगाना होता है, जहाँ उसका मन गोंद की तरह चिपक जाये और वापस न आये। भगवान के साथ अनेक सम्बन्ध जोड़े जा सकते हैं। जो भी सम्बन्ध हम भगवान के साथ जोड़ें, किताब के आधार पर नहीं जोड़ना है। अपनी भावना को आधार बनाकर जोड़ना है कि हमारी भावना क्या है। हमारे अन्दर अपूर्णता की भावना भी तो है। भावना रहे कि मैं भगवान का नालायक बेटा हूँ, कुटिल हूँ, कामी हूँ। यह अपूर्णता की भावना भी भगवान के प्रति बहुत काम आती है। अपने को भक्त मानना, यह कहना कि ‘मैं तो भगवान का भक्त हूँ, रोज नहाता हूँ, एकदम शुद्ध और सच्चा हूँ, रोज़ सुबह चार बजे उठता हूँ’ – यह सब अहंकार है, भक्ति नहीं। इसलिए भगवान के साथ अपनी भावना के अनुसार अपने सम्बन्धों को पूरा स्वाभाविक रखो।
हम कितने मतलबी हैं
सचमुच अगर हम अपने व्यक्तित्व को देखें, तो मालूम पड़ेगा कि हमारे जैसा मतलबी कोई है ही नहीं। भगवान ने हमें जीवन दिया, शरीर दिया और हम चौबीसों घण्टे निन्यानबे के चक्कर में रहते हो। भगवान नाराज न हो जायें, इसलिए सबेरे घण्टी बजाते हैं, पूजा करते हैं, चालीसा पढ़ते हैं, आरती करते हैं। डर रहता है कि घर का कोई सदस्य बीमार हो जायेगा, कोई एक्सीडेंट हो जायेगा, व्यापार में नुकसान हो जायेगा, है न डर? हम कितने मतलबी हैं, कितने कृतघ्न हैं कि भगवान ने तो हमें सब कुछ दिया और हमारे पास उनकी सेवा के लिए, उन्हें याद करने के लिए भी समय नहीं। आज ये काम है, आज वो काम है, आज वहां जाना है, आज तो सालगिरह है, वगैरह वगैरह….। आज शादी हो रही है तो कल बारात आ रही है। सौ प्रकार के बहाने होतें हैं हमारे पास। तो कम से कम यह बात तो हमे मान ही लेनी चाहिए कि हम बहुत ही मतलबी हैं, सच्चे नहीं हैं, मगर जैसे भी हैं, तुम्हारे तो हैं। ऐसा ही समझकर मेरा उद्धार करो भगवन।
आध्यात्मिक मार्ग में बहुत सी बाधाएं आती हैं, बाल-बच्चे आते हैं, घर-गृहस्थी आती है, रुपया-पैसा आता है, मगर यह हमें ध्यान में रखना चाहिए कि ये हमारे लक्ष्य नहीं है। वह साधन हो सकते हैं, साध्य नहीं। साध्य तो केवल एक है, और वह साध्य कौन है? उसको हम लोग भूल गये। हर आदमी भूल जाता है।
भगवान की चेतना में लीन रहें
ईश्वर को समय भले मत दो, क्यूंकि समय तो हमारा निन्यानबे के चक्कर में जायेगा, जाने दो। मगर जिस प्रकार से कामी पुरुष को स्त्री प्रिय होती है – ऑफिस जाता है, उसी की याद करता है; शौच जाता है, उसी की याद करता है; बिस्तर में सोता है, बीच-बीच में नींद टूटती है तो उसी की याद आती है – भगवान भी हमारे लिए उतने ही प्रिय बनें। जिस प्रकार मनुष्य अपने प्रेमी या दुश्मन की याद सब जगह कर सकता है, वैसे ही संसार में हर काम करते हुए भी मनुष्य को भगवान की चेतना में लीन रहना चाहिए। इसी को कहते हैं भक्ति मार्ग। भगवान का वह भक्त जो केवल प्रेम के लिए प्रेम करता है, भक्ति के लिए भक्ति करता है, वह सबसे उत्तम है।
जिसका मन स्थिर होता है, उसका आवागमन रुक जाता है। जब तक मन ठहरा नहीं है, तब तक तो वापसी टिकट लेना पड़ेगा। चित्त स्थिर हो जाये, यही जीवन की सबसे जरूरी चीज है। भक्ति पथ ऐसा है जिसमें मुनष्य का मन सहज ही ठहर सकता है। योग का आधार साधना है, पर भक्ति का आधार भावना है। साधना ऐसी चीज है, जिसको परिष्कृत करना पड़ता है और भावना ऐसी चीज है, जिसको केवल सही दिशा देनी पड़ती है। भावना तो है तुममें-बेटे के प्रति, पत्नी के प्रति, दुश्मन के प्रति, मित्र के प्रति वह भी जबरदस्त है, कम नहीं। जब तुम किसी से घृणा करते हो, तो नींद नहीं आती रात भर कोई घर में बीमार पड़ता है तो खाना अच्छा नहीं लगता। भावना तो तीव्र सबमें है। अब यही तीव्र भावना जो शुभ-अशुभ मार्ग से जा रही है, नदी की तरह थोड़ा उसका रास्ता बदलना पड़ता है।
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रय जिमि दाम ।
तिमि रधुनाथ निरंतर प्रय लागहु मोहि राम ।।
तिमि रधुनाथ निरंतर प्रय लागहु मोहि राम ।।
जिस प्रकार एक स्त्री कामुक पुरुष को प्रिय होती है, और लोभी को धन प्रिय होता है,
वैसे ही रधुनाथ, मेरे लिए हमेशा प्रिय रहो।
वैसे ही रधुनाथ, मेरे लिए हमेशा प्रिय रहो।
भगवान की कृपा
मुझे भगवान ने सब दिया और जो नहीं दिया, वह इसलिए कि मुझे उसकी जरूरत नहीं थी। फिर जबरदस्ती क्या माँगना? हम भगवान से इसलिए मांगते हैं क्योकि हम अज्ञानी हैं। भगवान को हमारी हर चीज का पता है। भगवान अन्तर्यामी हैं, हमारे मन और प्राणों का संचालन करने वाले हैं। भगवान का कृपा पात्र बनने के लिए भगवान की कृपा के प्रति सजग होना पड़ता है। भगवान की कृपा आती नहीं है, वह सतत् विद्यमान है। भगवान की कृपा हर व्यक्ति पर रहती है, किन्तु उसे मालूम नहीं पड़ता। भगवान के आशीर्वाद का अनुभव करने के लिए थोड़ा समय निकालना पड़ेगा। यह पक्की बात है कि भगवान की कृपा पुरुषार्थ साध्य नहीं, वह कृपा साध्य है। परन्तु इसमें हमारा भी थोड़ा सहयोग तो होना ही चाहिए। कुछ प्रयत्न हमको करना ही पड़ेगा। यदि प्रयत्न नहीं करना पड़ता तो संत-महात्मा इतना जोर क्यों देते? सत्संग करने को क्यों कहा गया है? इसलिए कि सत्संग पुरुषार्थ है। सत्संग में जो पुरुषार्थ है वह ऐसा पुरुषार्थ है, जहाँ जाकर मनुष्य को भगवत्कृपा की सम्पूर्ण उपस्थिति का ज्ञान होता है। इसलिए जो जहाँ भी रहे, जैसा भी रहे, सबसे पहली प्राथमिकता ईश्वर भक्ति को दे।
भक्ति अपने इष्टदेव के प्रति अवर्णनीय भाव का नाम है। यह वासना या विषयासक्ति नहीं, एक अनन्त प्यास, चिर-स्मरणीय याद और अपने इष्ट के साथ एक होने की लगन है। यह कर्तव्य नहीं, समर्पण की पूर्णता है।
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