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कुण्डलिनी चक्र जागरण विधि, नाड़ी योग और कुण्डलिनी
कुंडलिनी शब्द संस्कृत के कुंडल शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है घुमावदार। मान्यता है कि कुंडलिनी शक्ति प्रत्येक व्यक्ति के मूलाधार चक्र में सर्प के समान कुंडली मारकर सोयी रहती है, जिसे योग की साधनाओं के द्वारा जगाया जा सकता है।
एक आदमी की ऊर्जा हमेशा नीचे की तरफ़ बहती है। परिणामस्वरूप वह भौतिक दुनिया में तथा व्यसनों में व्यस्त रहता है। कुण्डलिनी जागरण के साथ उसकी उच्च चेतना का स्तर बढ़ जाता है, जो ऊर्जा अधोगामी होती है वो उर्ध्वगामी हो जाती है, शक्तियां नीचे से ऊपर की और बहाने लगती हैं और वह आदमी अपने विचारों में भी परिवर्तन पाता है, उसे एक दिव्य तथा अद्भुत अनुभव की अनुभूति होने लगती है।
कुंडलिनी चक्र क्या है (What Is Kundaini Chakra)
हठयोग के अनुसार हमारे शरीर में मूलत: सात मुख्य चक्र होते हैं, जो मेरुदंड के मध्य से गुजरने वाली सुषुम्ना नाड़ी में स्थित हैं। इनके नाम मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा चक्र तथा सहस्त्रार चक्र हैं। सुषुम्ना मूलाधार चक्र से आरम्भ होकर सिर के शीर्ष भाग तक जाती है। ये चक्र नाड़ियों से संबद्ध होते हैं। चक्रों को प्रतीकात्मक रूप से कमल के फूल के रूप में दिखाते हैं।
मूलाधार चक्र
यह पुरुष शरीर में जनने्द्रिरय और गुदा के बीच तथा स्त्री शरीर में गर्भाशय ग्रीवा में स्थित है। मूलाधार का अर्थ ही होता है हमारे अस्तित्व का आधार, इसीलिए इसे मूल केंद्र माना जाता है। मूलाधार चक्र पृथ्वी तत्व से संबद्ध है। इसका प्रतीक है चार दल वाला गहरा लाल कमल। इसका बीज मंत्र ‘लं‘ है। इसके केंद्र में पृथ्वी तत्व का यंत्र पीला वर्ग है। इसी वर्ग के केंद्र में एक लाल त्रिभुज है, जिसका शीर्ष नीचे की ओर है। वह शक्ति का प्रतीक है। त्रिभुज के भीतर एक लिंग है, जो सूक्ष्म शक्ति का प्रतीक है। हमारी कुंडलिनी शक्ति सुषुप्तावस्था में इसी लिंग के चारों ओर साढ़े तीन लपेट लिए हुए लेटी हुई है। यही कुंडलिनी शक्ति का निवास स्थान है। यही स्थान मनुष्य की समस्त शक्ति-काम शक्ति, भावनात्मक, मानसिक, अती्द्रिरय या आध्यात्मिक शक्ति का केंद्र है।
स्वाधिष्ठान चक्र
मूलाधार चक्र से लगभग दो अंगुल ऊपर मेरुदंड में जनने्द्रिरय के ठीक पीछे स्वाधिष्ठान चक्र होता है। यह जल तत्व से संबद्ध है। इस चक्र को सिंदूरी रंग के षट्दलीय कमल पुष्प के रूप से चित्रित किया जाता है। इसका बीज मंत्र ‘वं’ है। यह चक्र इ्द्रिरय सुख भोग की अभिलाषा का प्रतीक है। स्वाधिष्ठान चक्र प्राणमय कोश का निवास स्थान है। इसकी शुद्धि से व्यक्ति पाशविक वृत्तियों से ऊपर उठ जाता है।
मणिपुर चक्र
यह नाभि के ठीक पीछे मेरुदंड में स्थित है। यह अग्नि तत्व से संबद्ध है। इस चक्र को 10 दलों वाले कमल के रूप में चित्रित किया जाता है। कमल के मध्य में अग्नि तत्व का गहरे लाल रंग का त्रिभुज है। इसका बीज मंत्र ‘रं’ है। इसका संबंध महत्वाकांक्षा, इच्छाशक्ति तथा शासन करने की क्षमता से है। हमारा पूरा पाचन तंत्र इसी चक्र से नियंत्रित होता है।
अनाहत चक्र
वक्षस्थल के केन्द्र के पीछे मेरुदंड में अनाहत चक्र स्थित है। यह वायु तत्व से संबद्ध है। कमल के केन्द्र में एक षट्कोणीय आकृति है। इसका बीज मंत्र ‘यं’ है। यह नि:स्वार्थ प्रेम का प्रतीक है। इस स्तर पर भाईचारे एवं सहनशीलता की भावना विकसित होने लगती है तथा सभी जीवों के प्रति निष्काम प्रेम का भाव रहता है। जब कुंडलिनी जागृत होकर अनाहत चक्र का भेदन करती है, तो साधक दिव्य प्रेम से ओतप्रोत हो जाता है।
विशुद्धि चक्र
यह गर्दन तथा कंठ कूप के पीछे मेरुदंड में स्थित है। यह शुद्धि का केंद्र है। इसे 16 दल वाले बैंगनी कमल द्वारा दर्शाया जाता है। कमल के केंद्र में सफेद वृत्त है, जो आकाश तत्व का यंत्र है। इसका बीज मंत्र ‘हं’ है। विशुद्धि चक्र जागृत होने पर साधक में सही समझ तथा विवेक जागृत होता है। सत्य-असत्य में अंतर करने की क्षमता बढ़ जाती है। यह शब्द से संबद्ध है। इस चक्र के जागृत होने पर साधक में नेतृत्व क्षमता विकसित हो जाती है।
आज्ञा चक्र
मध्य मस्तिष्क में, भूमध्य के पीछे मेरुदंड के शीर्ष पर आज्ञा चक्र स्थित है। इस चक्र को तीसरा नेत्र, शिव नेत्र, ज्ञान चक्षु, त्रिवेणी आदि नाम से भी जाना जाता है। आज्ञा चक्र को चांदी के रंग के दो पंखुड़ियों वाले कमल के रूप में दर्शाया जाता है। ये दो पंखुड़ियां सूर्य तथा चन्द्र या पिंगला एवं इड़ा का प्रतीक हैं। कमल के केंद्र में पवित्र बीज मंत्र ‘ऊं’ अंकित है। जब आज्ञा चक्र जागृत होता है, तो मन स्थिर तथा शक्तिशाली हो जाता है और पांच तत्वों के ऊपर साधक का नियंत्रण हो जाता है। इसके अतिरिक्त साधक इस केंद्र से विचारों का सम्प्रेषण एवं अधिग्रहण करने में सक्षम हो जाता है। इसके जागरण से बुद्धि, स्मृति एवं प्रबल एकाग्रता शक्ति प्राप्त हो जाती है।
सहस्रार चक्र
यह सिर के शीर्ष भाग, जो नवजात शिशु के सिर का सबसे कोमल भाग होता है, में अवस्थित है। यह वस्तुत: चक्र नहीं है। यह चेतना का सर्वोच्च स्थान है। कुंडलिनी शक्ति को मूलाधार से जागृत कर सभी चक्रों को भेद कर यहां पर पहुंचना होता है। यही उसकी अंतिम गति है। सहस्रार को हजार दल वाले दीप्त कमल के रूप में दर्शाया जाता है। मूलाधार शक्ति प्रकृति या पार्वती का स्थान है। सुषुप्त कुंडलिनी को जागृत कर सभी चक्रों को भेदते हुए सहस्रार चक्र तक पहुंचने को ही कुण्डलिनी जागरण की संज्ञा दी गयी है । यहां योगी परम गति को प्राप्त करता है, जन्म-मृत्यु के चक्र को पार कर जाता है।
कुंडलिनी चक्र कैसे जाग्रत करें (How to activate Kundalini chakra in Hindi)
कुंडलिनी शक्ति को सक्रिय करने के कई तरीके हैं। इन तरीकों को अपनाते समय आपकी इच्छाशक्ति और आपकी निरंतरता की अत्यंत आवश्यकता है। सभी प्रचलित विधियों में एक प्रमुख विधि चक्र मेडिटेशन है। इस विधि में आपको चक्रों का संपूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है। ऊर्जा अथवा प्राणशक्ति का एक विशेष नियम है। आपका ध्यान जहां – जहां जाता है वह वहां प्रवाहित होने लगती है। जब आप इन चक्रों पर अपना ध्यान ले जाते हैं तो आपकी ऊर्जा वहां प्रवाहित होने लगती है। धीरे धीरे चक्र में विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता है, वे जागृत होने लगते है, ऊर्जा का मार्ग खुलने लगता है, सुषुम्ना जागृत होने लगती है और कुण्डलिनी शक्ति को ऊपर की और उठाने का मार्ग मिलता है।
फलस्वरूप आप इस विधि को अपना कर कुण्डलिनी जागरण कर सकते हैं।
सबसे पहले ४-५ लंबी गहरी सांस लें तथा अपनी सांसों को। अंदर जाते एवं बाहर आते देखें। धीरे धीरे ध्यान सांसों से हटाकर मूलाधार चक्र पर ले जाएं। चक्र को लाल रंग में समाहित होते कल्पना करें। कुछ मिनट उस चक्र पर ध्यान रखें फिर दूसरे चक्र पर ध्यान ले जाएं।
इस प्रकार एक एक करके सारे चक्रों पर अपना ध्यान ले जाएं तथा उसके रंगों की कल्पना करें।
दुसरे तरीके में आप उस चक्र से संबद्धित बीज मंत्र का भी जाप कर सकते हैं। कुछ हफ़्तों के अभ्यास के बाद ही आपको परिवर्तन दिखने लग जाएगा।
नाड़ी योग और कुण्डलिनी जागरण विधि
गोरक्ष संहिता के अनुसार नाभि के नीचे नाड़ियों का मूल स्थान है, उसमें से 72 हजार नाड़ियां निकली हैं, उनमें प्रमुख 72 हैं। उनमें से तीन प्रमुख नाड़ियां हैं- इड़ा, पिंगला तथा सुषुम्ना।
इड़ा नाड़ी बायीं नासिका तथा पिंगला नाड़ी दायीं नासिका से संबद्ध है। इड़ा नाड़ी मूलाधार के बाएं भाग से निकलकर प्रत्येक चक्र को पार करते हुए मेरुदंड में सर्पिल गति से ऊपर चढ़ती है और आज्ञा चक्र के बाएं भाग में इसका अंत होता है। पिंगला नाड़ी मूलाधार के दाएं भाग से निकलकर इड़ा की विपरीत दिशा में सर्पिल गति से ऊपर चढ़ती हुई आज्ञा चक्र के दाएं भाग में समाप्त होती है। इड़ा निष्क्रिय, अंतर्मुखी एवं नारी जातीय तथा चन्द्र नाड़ी का प्रतीक है। पिंगला को सूर्य नाड़ी भी कहते हैं। इन दोनों के बीच में सुषुम्ना नाड़ी है, जो मेरुदंड के केंद्र में स्थित आध्यात्मिक मार्ग है। इसका आरंभ मूलाधार चक्र तथा अंत सहस्रार में होता है। इसी सुषुम्ना नाड़ी के आरंभ बिंदु पर इसका मार्ग अवरुद्ध किए हुए कुंडलिनी शक्ति सोयी पड़ी है। इस शक्ति के जग जाने पर शक्ति सुषुम्ना, जिसे ब्रह्मरंध्र भी कहते हैं, में प्रवेश कर सभी चक्रों को भेदती हुई सहस्रार चक्र पर शिव से मिल जाती है।
जब बायीं नासिका में श्वास का प्रवाह अधिक होता है, तो इड़ा नाड़ी, जो हमारी मानसिक शक्ति का प्रतीक है, की प्रधानता रहती है। इसके विपरीत जब दायीं नासिका में श्वास का अधिक प्रवाह होता है, तो यह शारीरिक शक्ति का परिचायक है तथा यह शरीर में ताप, बहिर्मुखता को दर्शाता है। जब दोनों नासिकाओं में प्रवाह समान हो, तो सुषुम्ना का प्राधान्य रहता है। इड़ा एवं पिंगला में संतुलन लाने के लिए शरीर को पहले षटकर्म, आसन, प्राणायाम, बंध तथा मुद्रा द्वारा शुद्ध करना होता है। जब इड़ा एवं पिंगला नाड़ियां शुद्ध तथा संतुलित हो जाती हैं, तथा मन नियंत्रण में आ जाता है, सुषुम्ना नाड़ी प्रवाहित होने लगती है। कुण्डलिनी जागरण में सफलता के लिए सुषुम्ना का प्रवाहित होना आवश्यक है। यदि पिंगला प्रवाहित हो रही है, तो शरीर अशांत तथा अति सक्रियता बनी रहेगी, यदि इड़ा प्रवाहित हो रही है, तो मन अति क्रियाशील और बेचैन रहता है। जब सुषुम्ना प्रवाहित होती है, तब कुंडलिनी जाग्रत होकर चक्रों को भेदती हुई ऊपर की ओर चढ़ती है।
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