आदि शंकराचार्य भारतीय दर्शन और आध्यात्मिक परंपरा के सबसे प्रभावशाली आचार्यों में से एक माने जाते हैं। आदि शंकराचार्य का जीवन और उनकी शिक्षाएँ आज भी लोगों को आत्मज्ञान और सत्य की ओर प्रेरित करती हैं। वे अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रमुख प्रवर्तक थे, जिसने हिंदू दर्शन को एक स्पष्ट और एकीकृत दिशा दी।
Table of Contents
जन्म, प्रारंभिक जीवन और जन्मस्थान
आदि शंकराचार्य का जन्म केरल के कलड़ी गांव में हुआ था। उनके माता-पिता शिवगुरु और आर्यांबा अत्यंत धार्मिक और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। परंपरागत मान्यताओं के अनुसार, शंकराचार्य का जन्म परिवार के लिए अत्यंत शुभ माना गया और उनका नाम शंकर रखा गया, जिसका अर्थ है मंगल करने वाला।
हालाँकि शंकराचार्य की जन्मतिथि को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं, फिर भी यह व्यापक रूप से माना जाता है कि वे लगभग बारह सौ वर्ष पहले हुए और बहुत कम आयु में ही अपने जीवन कार्य को पूर्ण कर लिया। बचपन से ही आदि शंकराचार्य असाधारण बुद्धि और गहरी आध्यात्मिक जिज्ञासा के लिए प्रसिद्ध थे।
पिता के देहांत के बाद उनकी माता आर्यांबा ने उनका पालन-पोषण किया। मात्र आठ वर्ष की आयु में मोक्ष की तीव्र इच्छा के कारण उन्होंने घर त्याग कर गुरु की खोज प्रारंभ की।
आदि शंकराचार्य के गुरु: गोविंद भगवतपाद
गुरु की खोज में चलते हुए आदि शंकराचार्य नर्मदा नदी के तट पर पहुँचे, जहाँ उनकी भेंट महान संत गोविंद भगवतपाद से हुई। गोविंद भगवतपाद, गौडपादाचार्य के शिष्य थे और अद्वैत वेदांत परंपरा के प्रमुख आचार्य माने जाते हैं।
गुरु गोविंद भगवतपाद के सान्निध्य में आदि शंकराचार्य ने उपनिषद, वेदांत दर्शन और अन्य शास्त्रों का गहन अध्ययन किया। उनके गुरु ने उनकी विलक्षण प्रतिभा को पहचान कर उन्हें शास्त्रों पर भाष्य लिखने के लिए प्रेरित किया। यहीं से आदि शंकराचार्य के दार्शनिक योगदान की नींव पड़ी।
आदि शंकराचार्य की शिक्षाएँ: अद्वैत वेदांत दर्शन
आदि शंकराचार्य की शिक्षाओं का केंद्र अद्वैत वेदांत दर्शन है। अद्वैत का अर्थ है द्वैत का अभाव। इस दर्शन के अनुसार आत्मा (आत्मन) और ब्रह्म एक ही हैं। जो भेद दिखाई देता है, वह अज्ञान के कारण है।
आदि शंकराचार्य ने तर्क और शास्त्रों के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि यह संसार अस्थायी है और ब्रह्म ही परम सत्य है। उनका प्रसिद्ध वाक्य “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या” इसी सत्य को दर्शाता है। आत्मज्ञान, ध्यान और विवेक के द्वारा अज्ञान समाप्त होता है और सत्य का बोध होता है।
ग्रंथ और रचनाएँ
अपने अल्प जीवन में आदि शंकराचार्य ने अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथों की रचना की। उन्होंने उपनिषदों, भगवद गीता और ब्रह्म सूत्र पर भाष्य लिखे, जो आज भी अद्वैत वेदांत के मूल ग्रंथ माने जाते हैं।
इसके अलावा विवेक चूड़ामणि, आत्मबोध, उपदेश सहस्री जैसे ग्रंथों ने साधकों को आत्मज्ञान की सरल दिशा दिखाई। भज गोविंदम् और सौंदर्य लहरी जैसे स्तोत्र आज भी भक्तों द्वारा श्रद्धा से गाए जाते हैं।
आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठ
आदि शंकराचार्य ने पूरे भारत की यात्रा की और वेदों तथा वेदांत की पुनर्स्थापना की। उन्होंने देश के चारों दिशाओं में चार मठों की स्थापना की, जिन्हें आज भी शंकराचार्य मठ कहा जाता है।
इन मठों का उद्देश्य वैदिक ज्ञान की रक्षा करना और अद्वैत वेदांत दर्शन का प्रचार-प्रसार करना था। ये मठ आज भी आध्यात्मिक शिक्षा के प्रमुख केंद्र बने हुए हैं।
आदि शंकराचार्य का प्रभाव और विरासत
शंकराचार्य का प्रभाव केवल उनके समय तक सीमित नहीं रहा। उनकी शिक्षाएँ आज भी दर्शन, योग और आध्यात्मिक साधना में मार्गदर्शन करती हैं। अद्वैत वेदांत दर्शन ने भारतीय दर्शन को एक मजबूत आधार दिया और आत्मचिंतन की परंपरा को जीवित रखा।
आज के समय में आदि शंकराचार्य का महत्व
आज की व्यस्त और भ्रमित दुनिया में आदि शंकराचार्य की शिक्षाएँ अत्यंत प्रासंगिक हैं। आत्म-चिंतन, मौन और सत्य की खोज पर उनका बल व्यक्ति को भीतर की शांति से जोड़ता है। आदि शंकराचार्य का जीवन यह सिखाता है कि सच्चा ज्ञान व्यक्ति को मुक्त और जागरूक बनाता है।
यह भी पढ़ें –
