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पंचकोश के प्रकार
पंचकोश क्या है? इस लेख में हम इसे समझने का प्रयास करेंगे। गुण तीन बतलाये गएँ हैं – सतगुण, रजोगुण एवं तमोगुण. प्राचीन मनीषियों ने कहा है कि इन तीन गुणों से रची माया से मोहित होने की वजह से हमारे भीतर आत्मा पर विकारों का आवरण चढ जाता है, जिसकी वजह से यह आत्मा जीवात्मा कही जाने लगती हैं। योगियों ने हमारी विशुद्ध आत्मा पर पडने वाले उन आवरणों को कोश कहा है जिनकी संख्या पांच बतलायी गयी है और इन्हे ही पंचकोश कहा गया है। ये पांचों इस प्रकार हैं –
अन्नमय कोश
पंच तत्वों से निर्मित हमारे स्थूल शरीर का यह पहला आवरण अन्नमय कोश के नाम से जाना जाता है। इस स्थूल शरीर की त्वचा से लेकर हड्डियों तक सभी पृथ्वी तत्व से संबंधित हैं। संयमित आहार-विहार, आसन-सिद्धि और प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से अन्नमय कोश की शुद्धि होती है और स्थूल शरीर का समुचित विकास होता है
प्राणमय कोश
हमारे शरीर का दूसरा सूक्ष्म भाग प्राणमय कोश कहा जाता है। हमारे स्थूल शरीर और हमारे मन के बीच में प्राणमय कोश है जो एक माध्यम का काम करता है। ज्ञान और कर्म के सम्पादन का समस्त कार्य प्राण से बना प्राणमय कोश ही संचालित करता है। हमारे द्वारा श्वांसों को लेने व छोड़ने की प्रक्रिया में भीतर-बाहर आने-जाने वाला प्राण हमारे शरीर की समस्त क्रियाशीलता को बनाये रखने और आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने का महत्वपूर्ण कार्य संपादित करता है। स्थान तथा कार्य के भेद से प्राण १० प्रकार का माना जाता है। उनमें व्यान, उदान, प्राण, समान और अपान मुखय प्राण हैं तथा धनंजय, नाग, कूर्म, कृंकल और देवदत्त उपप्राण कहे जाते हैं।
हमारे प्राणों द्वारा संपादित होने वाले प्रमुख कार्य इस प्रकार हैं – भोजन को सही ढंग से पचाना, शरीर में रसों को समभाव से विभक्त करना तथा उन्हें वितरित करते हुए देहेन्द्रियों को पुष्ट करना, खून के साथ मिलकर देह में हर जगह घूम-घूम कर वैसे मलों का निष्कासन करना, जो देह के विभिन्न भागों में एकत्रित होकर अथवा खून में मिल कर उसे दूषित कर दिया करते हैं। इतना ही नहीं, देह के माध्यम से विविध विषयों के भोग का कार्य भी हमारे प्राण ही संपादित किया करते हैं। प्राणविद्या की साधना के नियमित अभ्यास से हमारे प्राणमय कोश की कार्यशक्ति में भी समुचित वृद्धि होती है।
मनोमय कोश
मनोमय कोष चार तत्वों से बना है: सोचना, विश्लेषण करना, महसूस करना और अहंकार। सांख्य में इन्हें मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के नाम से जाना जाता जिन्हें अन्तःकरण चतुष्टय भी कहते हैं। मन का मतलब है सोचना और प्रति-सोचना। बुद्धि विभिन्न वस्तुओं के बीच विश्लेषण या तुलना है। यह तर्कसंगत बनाने का एक साधन है। गर्म पानी और ठंडे पानी के बीच अंतर समझना बुद्धि की क्रिया है। चित्त देश, काल और वस्तु की भावना है। याद रखना, सपने देखना और जागरूकता चित्त है। चौथा अहंकार के रूप में जाना जाता है। यह अपने अस्तित्व का ज्ञान है। ‘मैं जानता हूँ कि मैं हूँ,’ यही अहंकार है।
विज्ञानमय कोश
जब भी आपको कोई ऐसा अनुभव होता है जो स्वभाव से व्यक्तिपरक होता है, तो वह विज्ञानमय कोष का परिणाम होता है। आप जो भी सपना देख रहे होते हैं तो वह भी विज्ञानमय कोष का प्रक्षेपण है। जब आप अपने ध्यान, एकाग्रता या मंत्र योग में, जब आप रोशनी और फूल, आकृतियाँ, देवदूत या संत देखते हैं, सुगंध सूंघते हैं या ध्वनियाँ सुनते हैं, तो यह विज्ञानमय कोष का परिणाम है।
विज्ञानमय कोष चेतन मन, व्यक्तिगत मन और सार्वभौमिक मन (समष्टि चेतना) के बीच एक कड़ी या सूत्र है। सार्वभौमिक ज्ञान विज्ञानमय कोष या मानसिक मन के माध्यम से चेतन मन तक आता है। विज्ञानमय कोष समय, स्थान और कारण कारकों पर निर्भर नहीं करता है।
जो मनुष्य पूरी समग्रता से समझ बूझ कर विज्ञानमय कोश का उचित ढंग से इस्तेमाल करता है और असत्य, भ्रम, मोह, आसक्ति आदि से पूरी तरह दूर रहकर हमेशा ध्यान आदि योगक्रियाओं का अभ्यास किया करता है, उसको उचित-अनुचित का निर्णय करने वाली विवेक युक्त बुद्धि बड़ी आसानी से प्राप्त हो जाती है।
आनन्दमय कोश
हमारे प्राचीन मनीषियों ने इस कोश को हृदय गुहा, हृदयाकाश, कारण शरीर, लिंग शरीर आदि नामों से भी पुकारा है। यह हमारे हृदय प्रदेश में अवस्थित होता है। हमारे आन्तरिक जगत से इस कोश का संबंध बहुत अधिक रहता है और बाह्य जगत से बहुत कम। इस कोश तक पहुंच पाना सबके लिए संभव नहीं हो पाता। वहां वही लोग पहुंच पाते हैं जो नियमित रूप से ध्यान आदि की साधना करते हुए निर्बीज समाधि तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं। जो भी बड़भागी मनुष्य वहां तक पहुंचने में सफल होता है, वही हमेशा आनंद में लीन रहने वाली जीवन-स्थिति का उपभोग करता है ।
इन सभी कोषों का समाप्त होना ही आध्यात्मिक अर्थों में उनका शुद्ध होना है क्यूंकि इससे ही जीवात्मा अपने स्वरुप में और सहजता से व्याप्त हो भगवत्पथ पर दृढ रहता है ।
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