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ध्यान कैसे करें और ध्यान का उद्देश्य
योग के वास्तविक महत्त्व को समझने के लिए हमें ध्यान के विज्ञान के बारे में बहुत कुछ जानना होगा। ध्यान कैसे करें – आइये जाने इस लेख में। वास्तविकता यह है कि सभी प्रकार के योग हमें ध्यान योग के लिए तैयार करते हैं। जैसे कि हठयोग का अभ्यास हमारे शरीर को शुद्ध करता है, वहीँ भक्तियोग का अभ्यास हमारे भावनात्मक व्यक्तित्व को शुद्ध करता है जबकि ज्ञानयोग का अभ्यास हमारी बुद्धि को शुद्ध करता है। इन अभ्यासों के द्वारा शुद्ध हुवे शरीर, बुद्धि और भावनात्मक व्यक्तित्व के साथ हम ध्यान की तरफ बढ़ सकते हैं।
ध्यान और ध्यान का उद्देश्य
जब हम अपनी आँखें बन्द करते हैं, तो अन्दर क्या देखते हैं? हम भीतर अपनी चेतना को देखते हैं। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि शरीर के परे मन है और मन के परे आत्मा है। ध्यान का उद्देश्य है मनुष्य के भीतर अदृश्य आत्मा का अन्वेषण करना। ध्यान के द्वारा हम नाम और रूप की दुनिया से परे जा सकते हैं और तब हम ऐसी दुनिया में प्रवेश कर सकते हैं जिसकी कोई सीमा नहीं होती। इसलिए हमें यह याद रखना चाहिए कि ध्यान एक सेतु का काम करता है, जो हमें एक किनारे से दूसरे किनारे तक ले जाता है।
मन का विखंडन
मानव इतिहास में हजारों प्रकार के विज्ञानों का अन्वेषण किया गया है। इन विज्ञानों के माध्यम से मानव ने प्रकृति और पदार्थ के रहस्यों को अनावृत किया है, परन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण विज्ञान जिसका अन्वेषण मनुष्य ने किया है, वह है ध्यान का विज्ञान। जैसे वैज्ञानिक भौतिकी में पदार्थ को विखण्डित कर उसके भीतर स्थित आणविक ऊर्जा को मुक्त करते हैं, उसी प्रकार ध्यान में एक योगी भी मन को विखंडित कर आध्यात्मिक शक्ति को मुक्त करता है। पदार्थ तत्त्वों से बना हुआ है। मन भी अनेक तत्त्वों से बना हुआ है। मन कोई सत्ता नहीं है, बल्कि तत्त्वों का संयोजन है। जब एक वैज्ञानिक पदार्थ को खण्डित करता है तो वह उसके घटक तत्त्वों को अलग-अलग करता है। उसी प्रकार ध्यान में हम मन के अवयवों को अलग करते हैं।
ध्यान और मन
जब हम ध्यान करते हैं तो हमारे मन में अनेक प्रकार के विचार आते हैं। ये मन के अवयव हैं, अतः ध्यान में हमें कभी मन को नियंत्रित नहीं करना चाहिए, ध्यान में मन को दबाना नहीं चाहिए, विचारों को अवरुद्ध नहीं करना चाहिए। यदि हम भी प्रतीक पर मन को एकाग्र कर रहे होते है तो हमारे मन में अनेको विचार आयेंगे। यह स्वाभाविक है और सही है और ऐसा होना चाहिए। बल्कि ऐसा नहीं होता है तो इसका मतलब है कहीं कुछ गड़बड़ है।स्वामी सत्यानंद सरस्वती जी कहते हैं कि मन्त्र का, एकाग्रता का, प्राणायाम का और योग का उद्देश्य मन को दबाना नहीं है, मन को खोजना है। सब कुछ बाहर निकलना चाहिए- अतीत की स्मृतियाँ, भविष्य का अवलोकन, हमारी सभी समस्याएँ, वह सब कुछ जो हम जानते हैं, वह सब कुछ जिनके बारे में हम सोचते हैं, उन्हें बाहर निकलना चाहिए। यह प्रत्याहार का, राजयोग का अभ्यास है, जिसमें हम अचेतन की गहराई से लेकर चेतना के तल तक अपने पूरे मन को अभिव्यक्त करते हो। जब हम एक मन्त्र को लेते हो तो हमें मन को कार्य करने देना चाहिए। मन कितनी देर तक कार्य कर सकता है? मन कितनी देर तक उद्विग्न रह सकता है? अन्ततः मन इन्द्रियातीत हो जाएगा। इसलिए ध्यानयोग में हम मन को एक तत्त्व के रूप में देखते हैं और पूरे मन को अभिव्यक्त करते हैं, जो अन्त में अनुभवातीत हो जाता है।
श्वास की सजगता और ध्यान कैसे करें
ध्यान की पूरी प्रक्रिया बहुत सरल है। यह एक व्यवस्थित प्रक्रिया है और यह श्वास की सजगता से प्रारम्भ होती है जो इसका पहला चरण है। श्वास स्वाभाविक है। एक मिनट में हम पन्द्रह बार श्वास लेते हैं, एक घण्टे में नौ सौ बार, चौबीस घण्टों में 21,600 बार। हमें कुछ नहीं करना है, केवल अपने श्वास को देखना है। हमें अपने मन को एकाग्र नहीं करना है। श्वास की सजगता, श्वास की एकाग्रता से भिन्न है।
जब हम अपनी नासिकाओं में श्वास की सजगता का अभ्यास करते हो, तो यह दूसरा चरण है। हम नाभि और कण्ठ के बीच एक काल्पनिक मानसिक पथ का निर्माण करते हुए नाभि और कण्ठ के बीच अपने श्वास पर मन को एकाग्र कर सकते हैं, यह तीसरा चरण है। मेरुदण्ड में गहरे श्वास पर मन को एकाग्र करना चौथा चरण है। हम भ्रूमध्य के पीछे पीनियल ग्रन्थि तक और पीनियल ग्रन्थि से आगे भ्रूमध्य तक श्वास पर मन को एकाग्र कर सकते हैं, यह पाँचवाँ चरण है। जब हम इन पाँच चरणों में धीरे-धीरे श्वास की सजगता का अभ्यास करते हो, तो हमारी सजगता का विकास होता है, इसमें हम अपने मन का दमन नहीं करते हैं।
अब श्वास के साथ हमें अपने मन्त्र का समावेश करना चाहिए। सबसे पहले मन्त्र का स्वाभाविक श्वास के साथ समावेश किया जा सकता है। उसके बाद मन्त्र का समावेश नाभि और कण्ठ के बीच के पथ में किया जा सकता है। मन्त्र का समावेश मेरुदण्ड में तथा भ्रूमध्य और पीनियल ग्रन्थि के बीच आगे और पीछे किया जा सकता है।
तीन प्रकार के श्वसन होते हैं- एक स्वाभाविक श्वास होता है, दूसरा स्वाभाविक श्वास से गहरा होता है और तीसरा गहरा श्वास होता है। स्वाभाविक श्वास क्या होता है? हम यह जानते हैं। हम जन्म से ही उसका अभ्यास करते आए हैं। स्वाभाविक से गहरा क्या होता है? हम यह भी जानते हैं। कभी-कभी हम इसका अभ्यास करते हैं जब हम सो रहे होते हैं। तीसरे प्रकार के श्वास को हठयोग में उज्जायी प्राणायाम के नाम से जाना जाता है। यह कण्ठद्वार को संकुचित करके एक ध्वनि उत्पन्न करके किया जाता है और हम गहरी निद्रा में इसका अभ्यास करते हैं। मेरुदण्ड में श्वास की सजगता का अभ्यास हो जाने पर हमें उज्जायी प्राणायाम प्रारम्भ कर देना चाहिए। मेरुदण्ड का शीर्ष भाग मस्तिष्क के पिछले भाग में भ्रूमध्य के पीछे स्थित होता है। मेरुदण्ड का निम्न भाग पुच्छास्थि (कॉक्सिक्स) में स्थित होता है।
हमें श्वास की सजगता का अभ्यास नीचे से लेकर शीर्ष भाग तक करना होगा। हमे अपनी चेतना को श्वास की सहायता से नीचे से ऊपर तक यात्रा करानी होगी। इसे कैसे करें? जब हम श्वास लेते हैं इसे साँसों का आरोहण कहते हैं और छोड़ने को सांसो का अवरोहण। जब चेतना श्वसन से जुड़ जाती है तो इसे चेतना का आरोहण और अवरोहण कहत देते हैं। इसे उज्जायी प्राणायाम की मदद से किया जाता है।
ध्यान कैसे करें – सोऽहम् और श्वासन
शास्त्रों में कहा गया है कि श्वास के साथ सोऽहम् की ध्वनि का अनुभव करो। जब श्वास के साथ हम ऊपर जाते हैं तब ‘सो’ के बारे में और जब हम श्वास के साथ नीचे उतरते हैं, तब ‘हम्’ के बारे में हमें विचार करना चाहिए। इस प्रकार यह ‘सोऽहम्’ मन्त्र हो जाता है। इसके बाद गहरी श्वास की सजगता के साथ शान्तिपूर्वक बैठ जाना होता है और एक अन्य अभ्यास को इसमें सम्मिलित कर लेना होता है। अपनी जिह्वा को मोड़कर तालू के ऊपरी भाग पर हल्के से दबाना है। हठयोग में इसे खेचरी मुद्रा के नाम से जाना जाता है। इसका अभ्यास दस मिनट तक करते रहना है। विचारों को मन में आएं तो आने दो, इसमें कोई हानि नहीं। दृश्यों को मन में उभरने दो, इसमें भी कोई हानि नहीं। यदि नींद आने लगती है, तो भी कोई बात नहीं। कुछ नहीं करना है, केवल सोऽहम् के साथ श्वास लेना और छोड़ना है। अन्त में मन को भ्रूमध्य पर एकाग्र करना चाहिए। यह ध्यान का एक सरल अभ्यास है।
ध्यान की अनेक पद्धतियाँ हैं। हम उनका धीरे-धीरे अभ्यास कर सकते हो, परन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सजगता को स्थिर कैसे रखा जाये। इसके लिए यह मौलिक अभ्यास है। यह चेतना को सहज बना देगा। जब चेतना सहज हो जाती है तो उसमें गत्यात्मकता आ जाती है। ध्यानयोग में याद रखने योग्य सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमें मन को निष्क्रिय नहीं होने देना है, बल्कि उसे गत्यात्मक बनाना है। ध्यानयोग का अर्थ है- सजगता को विकसित करते हुए एकत्व स्थापित करना।
मन्त्र और ध्यानयोग
ध्यानयोग में मन्त्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। हम सब्जी को बिना बीज के नहीं उपजा सकते। इसी प्रकार मन्त्र के बिना ध्यान सफल नहीं हो सकता है। प्रत्येक साधक का अपना मन्त्र होता है। हमें अपने मन्त्र का अन्वेषण करना होगा। यह ध्वनि है, अक्षर है, स्पन्दन है। स्पन्दन क्या है? स्पन्दन ध्वनि में समाहित है। ध्वनि स्पन्दन में बिखरी हुई है और यही ब्रह्माण्ड का आधार है। कहा जाता है कि यह ध्वनि शाश्वत और गुह्य है। ऐसी अनेक ध्वनियों है जिन्हे हम सुन नहीं सकते और मन्त्र के रूप में ये ध्वनियाँ गहरे ध्यान और समाधि में प्रकट होती हैं। जब हम ध्यान करते है तथा नाम और रूप के परे चले जाते है तब हम समाधि की अवस्था में होते हो। उस समय कुछ शब्द हमारे अन्दर प्रकट होते हैं, यही हमारा मन्त्र होता है। हमें इसे किसी से लेना नहीं पड़ता है; जब हम अनुभवी से परे हो जाते हो, तो वह मन्त्र हमारे साथ रहता है। यदि हम दस मिनट तक ‘ॐ’ का अभ्यास करते हो तो हमें अपनी मानसिक अवस्था में अन्तर अनुभव होता है। इसके लिए एक बात समझ लेनी चाहिए कि जो मन की उच्च अवस्था को प्राप्त करना चाहता है, उसके पास अपना एक मन्त्र होना चाहिए।
ध्यान में बैठने का आसन
ध्यान के लिए बैठते समय हमारा मेरुदण्ड लम्बवत् और सीधा रहना चाहिए। मेरुदण्ड महत्त्वपूर्ण है। इस मेरुदण्ड के भीतर तीन मुख्य नाड़ियाँ हैं जो प्राणशक्ति, मनःशक्ति और आध्यात्मिक शक्ति का नियन्त्रण करती हैं। इन नाड़ियों के नाम हैं इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना। इड़ा मनः शक्ति, पिंगला प्राणशक्ति और सुषुम्ना आध्यात्मिक चेतना का वहन करती है। ये तीनों नाड़ियाँ मेरुदण्ड में स्थित होती हैं। इसलिए जब हम ध्यान के लिए बैठते हो तो मेरुदण्ड को लम्बवत्, सीधा और तनावरहित होना चाहिए।
मूलाधार चक्र का महत्त्व
जब हम ध्यान कर रहे हति हो तब उस समय मस्तिष्क में या शरीर में कहीं भी कोई क्रिया नहीं हो रही होती है। सब कुछ केवल मूलाधार के एक बिन्दु पर होता है, जो मल-उत्सर्जन और मूत्र-उत्सर्जन तन्त्रों के बीच स्थित होता है। कुण्डलिनी योग में यह मूलाधार चक्र के नाम से जाना जाता है। पुरुष शरीर में यह मूलाधार के तल के नजदीक होता है जिसे पेरिनियम कहते हैं और स्त्री शरीर में यह गर्भाशय के द्वार पर होता है, जो सर्विक्स कहलाता है।
यह एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। ध्यान में जो कुछ घटित होता है, उसका सम्बन्ध मूलाधार में स्थित ऊर्जा से और वहाँ होने वाले जागरण से होता है। यह याद रखो कि मूलाधार चक्र में ऊर्जा सुषुप्त अवस्था में रहती है। यह मनुष्य के अन्दर सुषुप्त पड़ी कुण्डलिनी शक्ति का निवास स्थान है। जब मूलाधार चक्र का जागरण होता है तो मस्तिष्क भी सक्रिय हो जाता है। मस्तिष्क में अन्तर्ज्ञान के केन्द्र होते हैं, किन्तु हम बिना मूलाधार चक्र को जागृत किये मस्तिष्क को जागृत नहीं कर सकते। मूलाधार चक्र एक स्विच के समान है, जिसको दबाने पर प्रकाश होता है। इसके अतिरिक्त कोई दसरा तरीका नहीं है।
मूलाधार चक्र एक स्विच है और कुल मिलाकर ऐसे छः स्विच हैं। जब हम यह जान जाते हो कि उन्हें कैसे क्रियाशील किया जाये तो तुम्हारा मस्तिष्क प्रकाशित हो सकता है। ध्यान का उद्देश्य मूलाधार चक्र में सुषुप्त ऊर्जा को जगाना है। ध्यान के लिए दो आसन बताये गए हैं एक है पद्मासन और दूसरा है सिद्धासन। तुम इन दोनों में से किसी एक में ध्यान का अभ्यास कर सकते हो, परन्तु सिद्धासन श्रेष्ठ है।
ध्यानयोग और मनुष्य का विकास-क्रम
यह केवल ध्यानयोग का परिचय है। ध्यान के अतिरिक्त मनुष्य जो कुछ कर रहा है, वह जानवर भी कर सकते हैं। मनुष्य को जो एक अलग पहचान देता है, वह ध्यान है। हम लोग विकास-क्रम की बात कर रहे हैं। हम कैसे विकसित होते हैं? उसका तरीका क्या है? क्या विचार करने से हम विकसित हो सकते हैं? हम ध्यान के द्वारा विकसित होते हैं। हमें किस ओर प्रगति करनी चाहिए, बाहर या अन्दर? अन्दर की ओर। आन्तरिक प्रगति विकास है। बाह्य प्रगति विकास नहीं है। जब मनुष्य बहिर्मुखी हो जाता है तो स्वर्ग से उसका पतन हो जाता है। जब वह अन्तर्मुखी होता है तो वह स्वर्ग की ओर आरोहण करता है। इसीलिए ध्यान एक ऐसा विज्ञान है जिससे व्यक्ति महामानव के रूप में विकसित होता है। महामानव होना हमारी नियति है। महामानव वह है जो अन्तर्ज्ञान और आन्तरिक सजगता के साथ रहता है।
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