हमारे मनीषियों ने योग की कल्पना केवल आसन-प्राणायाम के रूप में नहीं की है। कोई रोज सबेरे उठकर आसन करें, प्राणायाम करे, कसरत करे और सोचे कि वह आध्यात्मिक जीवन बिताता है, यह उसकी गलतफहमी है। आसन-प्राणायाम तो योग के बहुत छोटे अंग हैं। अन्त में योग का उद्देश्य और प्रयोजन होता क्या है?
Table of Contents
योग का व्यावहारिक उद्देश्य
मनीषी कहते हैं कि योग का उद्देश्य आत्म-साक्षात्कार है, समाधि है, मुक्ति है, निवृत्ति है, लेकिन किसी भी विद्या को समयानुकूल होना चाहिये। आखिर महात्मा बुद्ध ने भी अनेक विधियों, अनुष्ठानों और साधनाओं का प्रयोग किया था। बौद्ध मत में आज जो प्रचलित मान्यताएँ एवं पद्धतियाँ हैं, वे महात्मा बुद्ध की व्यक्तिगत साधना के परिणाम हैं। लेकिन आम जनता को उन्होंने जो शिक्षा दी वह अहिंसा की थी। उन्होंने अपनी तपस्या की शिक्षा नहीं दी, बल्कि अहिंसा की शिक्षा दी क्योंकि उस समय सामाजिक स्तर पर अहिंसा को स्थापित करने से समाज और व्यक्ति के जीवन में शान्ति आ सकती थी।
वैसे ही हमारे जैन तीर्थंकर हुए हैं जो त्यागमय, तपोमय और साधनामय जीवन व्यतीत करते थे, लेकिन समाज में वे अहिंसा की बात बोलते थे, अपनी साधना की नहीं। साधना की बात उसी को बोलेंगे जो इसे समझेगा, जो उनका सहयोगी है या विद्यार्थी है या साधक है या शिष्य है। लेकिन जनता को ‘ऐसा ध्यान लगाओ, ऐसा त्याग करो, ऐसा अनुष्ठान करो, ऐसा व्रत करो’ यह नहीं कहते, बल्कि कहते हैं कि भाई, अच्छा आचरण करके जीवन जीना सीखो, कुछ उपयोगी नियमों का
पालन करो, जीवन में अच्छाई को लाने के लिये अणुव्रत धारण करो। अणुव्रत का मतलब होता है छोटा-सा संकल्प और छोटे संकल्प से ही हम लोगों को साधना आरम्भ करनी है।
संन्यास परम्परा में योग आदि शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैत वेदान्त दर्शन है। लेकिन जो योगी और संत होते हैं, वे हमसे और आपसे वेदान्त दर्शन की बात कभी नहीं कहते हैं। अभी तक जो भी बात कही गई वह योग की कही गई, क्योंकि आज समाज को उसकी आवश्यकता है, वेदान्त की नहीं। स्वामी शिवानन्द जी भी यही कहा करते थे – ‘जिस आदमी का दम फूल रहा है, जो पीड़ा से कराह रहा है, उसको वेदान्त की शिक्षा दोगे क्या? उससे यह कहोगे कि तुम शरीर नहीं हो, तुम ब्रह्म हो, तुम्हारा दुःख-दर्द से कोई रिश्ता नहीं? नहीं नहीं, उस व्यक्ति को वेदान्त की शिक्षा नहीं बल्कि दवा देनी है जिससे वह अपने दुःख-दर्द से मुक्त हो सके। उन्होंने अपने शिष्यों को आदेश दिया, ‘तुम लोग वेदान्त दर्शन का प्रचार मत करो, बल्कि जगह-जगह जाकर योग का प्रचार करो, जो आज के युग की आवश्यकता है।’
स्वामी शिवानन्द जी के शिष्यों ने आज तक योग का जो प्रचार-प्रसार किया है, वह योग का मात्र एक अंग ही है। किसी ने हठयोग को पकड़ा है तो किसी ने राजयोग को, किसी ने ज्ञानयोग को तो किसी ने भक्तियोग को, किसी ने कर्मयोग को तो किसी ने क्रिया और कुण्डलिनी योग को। सम्पूर्ण मानव व्यक्तित्व के विकास हेतु, अच्छे संस्कारों के निर्माण हेतु और अपने जीवन की प्रतिभाओं के विकास हेतु योग करना है। योग का एक लक्ष्य आधुनिक संदर्भ में योग की पूर्णाहुति आत्म-साक्षात्कार में नहीं, बल्कि मनुष्य की सदाचार-वृत्ति में होनी चाहिए।
शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक शान्ति योग का प्रथम उद्देश्य
तो शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक शान्ति को हम बनायें, और यही हमारे योगियों ने आज के समाज के कल्याण के लिए किया है। अनेकों अनुसंधान, प्रयोग और प्रशिक्षण उनके द्वारा किए गए, यह स्थापित करने के लिये कि किस प्रकार एक व्यवस्थित, अनुशासित और यौगिक जीवन बिताने से मनुष्य जीवन के रोग स्वतः दूर हो सकते हैं। इसी तरह शान्ति को लेकर प्रयोग हुए। जिस चिन्ता, तनाव और दबाव से मनुष्य का मन, बुद्धि और भावना व्यथित होते हैं, कैसे हम अपने आपको उनके प्रभावों से मुक्त करके अपने जीवन में शान्ति का अनुभव कर सकते हैं।
अच्छे संस्कारो को अपनाना, प्रतिभा विकसित करना, और सदाचार योग का द्वितीय उद्देश्य
एक बार जब शारीरिक स्वास्थ्य और मानसिक शान्ति जीवन में आ जाती है तो योग के उद्देश्य को आगे बढ़ाया जा सकता हैऔरअगले उद्देश्य के रूप में हम अपने आपको अच्छे संस्कारों से युक्त करने के लिए, अपने जीवन की प्रतिभा को विकसित करने के लिये और जीवन में सदाचार लाने के लिये योग के अभ्यासों को करें। यही आज के युग में योग के व्यावहारिक रूप से उद्देश्य बन जाते हैं।