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नीम करोली बाबा – उनकी कहानी, चमत्कार, आश्रम और उनकी मृत्यु कैसे हुई
भारत के महान ऋषि-मुनियों, संतो और महात्माओ ने अध्यात्म को भारत में स्थापित किया है और भारत को अध्यात्म में विश्व गुरु की संज्ञा दिलाई है। संत और महात्मा हमारे जीवन को प्रकाशवान करते हैं, एक नई दिशा प्रदान करते हैं। ये लोग अपनी सुख-सुविधाओं को त्याग कर देश का और समाज का भी कल्याण करते हैं। एक ऐसे ही संत, जो हनुमान जी के परम भक्त थे, जिन्होंने लोगों के जीवन में नई सकारात्मक ऊर्जा प्रदान की और जिनकी महान संतों में गिनती होती है वे हैं नीम करोली बाबा। नीम करोली बाबा का पूरा जीवन चमत्कारों से भरा रहा। इनके जीवित रहते हुए और समाधि के बाद भी देश-विदेश के अनुयायियों का इनके आश्रम में ताता लगा रहा। बाबा ने कभी भी किसी भी भक्त से भेदभाव नहीं किया चाहे वह बहुत धनवान हो या बहुत गरीब। आज जानते हैं नीम करोली बाबा की कहानी, उनके चमत्कार, आश्रम और उनकी मृत्यु कैसे हुई?
बाबा नीम करौली का जन्म, 1900 के आसपास फिरोजाबाद जिले के निकट, अकबरपुर में हुआ था। इनके पिता पंडित दुर्गा प्रसाद शर्मा जी एक बहुत बड़े जमींदार थे। बाबा नीम करौली का मूल नाम लक्ष्मी नारायण शर्मा था। इनका विवाह 11 वर्ष की उम्र में ही हो गया था। किन्तु गृहस्थ जीवन में उनकी रूचि नहीं थी और उन्होंने शीघ्र ही घर त्याग दिया। वे काफी समय तक इधर-उधर भटकते रहे। शुरुआती दौर में गुजरात के मोरबी से 35 किलोमीटर दूर एक गांव के आश्रम में बाबा ने सघन साधना की। यहां आश्रम के गुरु महाराज ने उनका नाम लक्ष्मण दास रखा। बाद में बाबा ने वह स्थान भी शीघ्र ही छोड़ दिया।
यहाँ से निकल कर वे सीधे राजकोट के पास बवानिया गांव में एक तालाब के किनारे पहुंचे और वही कुछ समय रहकर तपस्या की। बाबा ने वहीँ एक हनुमान जी का एक मंदिर स्थापित किया। बाबा इसी तालाब में खड़े होकर घंटों तपस्या लगे। उस गांव के लोग बाबा की ऐसी तपस्या देखकर उनके भक्त बन गए और उन्हें तलैया बाबा के नाम से पुकारने लगे। बाबातो बाबा थे, सन्यासी थे, वे कहाँ एक जगह रुकने वाले थे। उस आश्रम को अपनी एक शिष्या संत रमाबाई को आश्रम समर्पित कर वहां से मां गंगा से मिलने निकल पड़े।
नीम करोली बाबा के चमत्कार
बाबा टूंडला से फर्रुखाबाद जाने वाली ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में चढ़ गए। टिकट निरीक्षक ने एक बाबा को जब प्रथम श्रेणी में बैठा पाया तो उन्हें बेइज्जत करके,रास्ते में ही ट्रेन से उतार दिया। बाबा भी बिना विरोध किए उतर गए और नज़दीक ही एक नीम के पेड़ के नीचे बैठ गए। उन्होंने अपना चिमटा, वही जमीन में गाड़ दिया। अब हुआ ऐसा कि उनके उतरते ही ट्रेन भी वही की खड़ी हो गयी। ला ख कोशिशों के बाद भी, ट्रेन तस हुई तो ट्रेन के गार्ड, ड्राइवर व टिकट निरीक्षक को आभास हुआ कि उन्होंने बहुत बड़ी गलती कर दी है। दौड़े दौड़े बाबा के पास कैसे भी पहुंचे और उन्होंने बाबा से क्षमा याचना की। उन्हें मनाया, उनसे विनती की कि वे ट्रेन में पुनः आकर बैठे ताकि ट्रेन चल सके। बाबा ने ट्रेन पर बैठने के लिए दो शर्तें रखी। पहली यह कि वे कभी भी किसी साधु-संत का तिरस्कार नहीं करेंगे। दूसरा इस स्थान पर एक रेलवे स्टेशन का निर्माण हो। इसके बाद बाबा ने उन्हें प्रथम श्रेणी का टिकट भी दिखाया। बाबा की यह दोनों शर्ते मान ली गई। फिर जैसे ही बाबा ट्रेन में बैठे ट्रेन चल पड़ी। वहां पर स्टेशन की स्थापना हुई जिसका नाम नीब करोरी स्टेशन पड़ा, जो आज भी स्थित है।
उसी ट्रैन में उनके साथ उस गांव के काफी लोग गंगा मैया का स्नान करने जा रहे थे। उन्होंने बाबा से आग्रह किया कि वह उनके गांव में आ कर रहे। बाबा ने गांव वालों की बात का मान रखा और वे वह आकर रहने लगे. उन्हें अपनी साधना को जारी रखने के लिए गाँव वालो से कहकर एक गुफा बनवाई। बाबा ने अपने हाथों से हनुमान जी की मूर्ति की रचना की। जो आज नीम करोली धाम में मौजूद है। बाबा उस गुफा में अनेकों-अनेकों दिन तक सघन साधना करते रहे। यहां उनका नाम बाबा नीम करोरी पड़ा। ट्रेन रोके जाने की घटना के चर्चे चरों ओर होने लगे और बात उनके खुद के गाँव भी पहुंची। तब उनके पिता ने सोचा कि चलो, बाबा नीम करोरी से अपने बेटे के बारे में पूछेंगे की वो कहां है। इसी विचार के साथ वे नीब करोरी धाम पहुंचते हैं। वह अपने ही बेटे को नीम करोरी बाबा के रूप में पाकर उनकी आश्चर्य और ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता। तब वे उससे विनती करते है कि अब वे घर चलकर, गृहस्थ जीवन व्यतीत करें। बाबा आखिर उनकी बात मान लेते हैं और घर चलने को तैयार हो जाते हैं।
नीम करोली बाबा के अन्य चमत्कार
एक बार की बात है जब कैंची धाम आश्रम में भंडारा होना था। बड़ी संख्या में लोग भंडारे का प्रसाद ग्रहण करने आए लेकिन इस दौरान घी कम पड़ गया। बाबा नीम करोली के शिष्यों ने इस बात की खबर उन तक पहुंचाई। नीम करौली बाबा जी ने अपने भक्तों से कहा चिंता मत करो, पास बह रही गंगा नदी से दो कनस्तर जल भरकर ले आओ। भक्तों ने ऐसा ही किया वे गंगाजल भरकर ले आए और बाबा के कहने पर उसे कढ़ाई में डाल दिया। बाबा नीम करोली के चमत्कार से कढ़ाई में डाला जल देशी घी में बदल गया और उसमें गर्मा-गर्भ पूड़िया तली जाने लगी। सभी भक्त ये देखकर हैरान रह गए।
बाबा के कई भक्त थे। उनमें से ही एक बुजुर्ग दंपत्ति थे जो फतेहगढ़ में रहते थे और उनका पुत्र द्वितीय विश्व युद्ध बर्मा फ्रंट पर ब्रिटिश फौज की तरफ से युद्ध स्थल पर लगा था और वे उसको लेकर बहुत चिंतित थे। यह घटना 1943 की है। एक दिन अचानक बाबा उनके घर पहुंच गए और कहने लगे वे रात में यहीं रुकेंगे। दोनों को अपार खुशी तो हुई, लेकिन उन्हें इस बात का दुख भी था कि घर में महाराज की सेवा करने के लिए कुछ भी नहीं था। फिर भी घर में जो कुछ भी था उन्होंने बाबा को दिया और बाबा वह खाकर एक चारपाई पर कंबल ओढ़कर सो गए। दोनों बुजुर्ग भी बाबा के पास ही लेट गए। बाबा कंबल ओढ़कर रात भर कराहते रहे, ऐसे में दोनों बुजुर्ग दंपत्ति समझ नहीं पाए कि क्या पता महाराज जी को क्या हो गया। जैसे-तैसे कराहते-कराहते सुबह हुई। सुबह बाबा उठे और चादर को लपेटकर बजुर्ग दंपत्ति को देते हुए कहा इसे गंगा में प्रवाहित कर देना लेकिन इसे खोलकर देखना नहीं। दोनों दंपत्ति ने बाबा की आज्ञा का पालन किया और उस चादर को वैसी की वैसी ही नदी में प्रवाहित कर दी। जाते हुए बाबा ने कहा कि चिंता मत करना महीने भर में आपका बेटा लौट आएगा।
लगभग एक माह के बाद बुजुर्ग दंपत्ति का इकलौता पुत्र बर्मा फ्रंट से लौट आया। उसे देखकर दोनों बुजुर्ग दंपत्ति खुश हो गए। उसने बताया कि करीब महीने भर पहले एक दिन वह दुश्मन फौजों के साथ घिर गया था। रातभर गोलीबारी हुई। उसके सारे साथी मारे गए लेकिन वह अकेला बच गया। मैं कैसे बच गया यह मुझे पता नहीं। यह वही रात थी जिस रात नीम करोली बाबा जी उस बुजुर्ग दंपत्ति के घर रुके थे।
नीम करोली बाबा का परिवार
बाबा नीब करोरी पिता के आदेश पर, 10 वर्षों बाद अपने गांव अकबरपुर वापस आते हैं और गृहस्थ जीवन की फिर से शुरुआत करते हैं। वे अपने पिता से कहते हैं कि जो समाज सेवा का कार्य मैंने शुरू किया है उसे भी जारी रखूंगा। उनके पिता उन्हें इज़ाज़त देते हैं और कहते हैं कि बेटा जनकल्याण के कार्यों को जारी रखो लेकिन बस घर आते-जाते रहो। बाबा उनके दिल की बात को समझते हुए उन्हें वचन देते हैं कि वह ऐसा ही करेंगे। 1925 में बाबा को सुपुत्र की प्राप्ति होती है जिसका नाम अनेग सिंह शर्मा रखा जाता है। 1935 में एक भव्य यज्ञ का बाबा आयोजन भी करते हैं जिसमें बाबा अपनी जटाये त्याग देते हैं। उनके धर्म कार्य और गृहस्थ जीवन साथ-साथ चलते हैं। 1937 में उन्हें, दूसरे पुत्र की प्राप्ति होती है जिसका नाम धर्म नारायण शर्मा रखा जाता है। फिर 1945 में उन्हें कन्या रत्न की प्राप्ति होती है जिनका नाम गिरजा देवी रखा जाता है।
1942 में नीम करोली बाबा उत्तराखंड में, भवाली से कुछ दूर एक छोटी सी घाटी के पास बैठे होते हैं। तभी उन्हें पहाड़ी पर एक व्यक्ति दिखाई पड़ता है, जिसे बाबा उसका नाम लेकर पुकारते हैं। जब वह व्यक्ति जिसका नाम पूरन था आश्चर्यचकित रह जाता है कि मैं तो इन बाबा से पहली बार मिला ये मेरा नाम कैसे जानते हैं? इस पर बाबा कहते हैं कि मैं तुम्हें कई जन्मों से जानता हूं। वह व्यक्ति घर में सभी को बाबा के बारे में बताता है। फिर पूर्ण अपने घर जाट है उनके बारे में सबको बताता है और घर में मौजूद दाल और रोटी लेकर बाबा के पास आता है और उन्हें देता है।
बाबा भोजन ग्रहण करते हैं और फिर पूरन से कहते हैं कि जाओ और कुछ गांव वालों को बुला कर ले आओ। बाबा गांव वालों के साथ नदी पार कर दूसरी ओर जंगल में जाते हैं। फिर एक स्थान पर रुककर कहते हैं कि यह जो पत्थर है इसे हटाओ, इसके पीछे गुफा है। पूरन और गांव वाले पत्थर हटाते हियँ और वहां वास्तव में एक गुफा मिलती हैं और वे सभी आश्चर्यचकित रह जाते हैं। बाबा बताते हैं कि गुफा में एक हवन कुंड है सभी अंदर जाते हैं और बाबा के बताए अनुसार सभी कुछ जस का तस मिलता है। उस स्थान पर हनुमान जी को स्थापित किया जाता है और तब बाबा बताते हैं कि यह स्थान सोमवारी बाबा की तपोस्थली है। 1962 में कैंची धाम की स्थापना की जाती है। यह स्थान देश ही नहीं, वरन विदेशों तक ख्याति प्राप्त है। आज यहां देशभर के और विदेशी श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है।
नीम करोली बाबा की मृत्यु कैसे हुई
9 सितंबर 1973 को बाबा नीम करौली ने कैंची धाम त्याग दिया। बाबा ने काठगोदाम से ट्रेन के द्वारा आगरा के लिए प्रस्थान किया। आगरा पहुंचने से पहले ही वह ट्रेन से उतरे शिष्य रवि खन्ना, जो उनके साथ थे, उनसे कहा कि मैं अपना देह त्याग रहा हूं। मेरा अंतिम संस्कार कैंची धाम में न करके, वृंदावन में किया जाए। मेरी अर्थी को सबसे पहले कंधा मेरा शिष्य पूर्णानंद ही लगाएगा। जब तक वो नहीं आ जाता तब तक मेरा अंतिम संस्कार ना किया जाए। इस तरह बाबा ने अपनी देह को त्यागा और उनकी समाधि वृंदावन के आश्रम में बनाई गई। इसके बाद उनकी अस्थियां भी कैंची धाम लाई गई जहां पर उनके दर्शन किए जा सकते हैं।
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