भगवद गीता के श्लोकों में छिपा ज्ञान अनादि काल से मानव जीवन का मार्गदर्शन करता आया है। इनमें से एक अत्यंत प्रसिद्ध श्लोक है —
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”, जो हमें सिखाता है कि मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल की चिंता करने में नहीं।
यह श्लोक अध्याय 2, श्लोक 47 में आता है, जब भगवान श्रीकृष्ण रणभूमि में निराश अर्जुन को धर्म और कर्म का वास्तविक अर्थ समझा रहे होते हैं। यह उपदेश न केवल युद्ध के संदर्भ में, बल्कि हमारे पूरे जीवन पर लागू होता है।
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कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन full shloka
कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन का अर्थ
तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फल में नहीं ।
इसलिए तू कर्म फल में हेतु रखने वाला मत हो,
तथा तेरी अकर्म में (कर्म न करने में) भी आसक्ति न हो ।
भगवान श्रीकृष्ण यहाँ यह स्पष्ट करते हैं कि हमें कर्म तो करना ही चाहिए, परंतु उसके फल की चिंता नहीं करनी चाहिए — क्योंकि फल पर हमारा नहीं, केवल भगवान का अधिकार है।
शब्दार्थ (Word by Word Meaning)
| संस्कृत शब्द | अर्थ |
|---|---|
| कर्मणि | कर्मों में |
| एव | केवल |
| अधिकार: | अधिकार |
| ते | तेरा |
| मा | नहीं |
| फलेषु | फल में |
| कदाचन | कभी भी |
| मा | मत |
| कर्मफल | कर्म का फल |
| हेतु: | कारण |
| भू: | बन |
| मा | मत |
| ते | तेरा |
| सङ्ग: | आसक्ति |
| अस्तु | हो |
| अकर्मणि | अकर्म में |
श्लोक का गूढ़ अर्थ और जीवन दर्शन
यह श्लोक हमें निष्काम कर्म योग का मूल सिद्धांत सिखाता है —
कर्म करते जाओ, फल की चिंता मत करो।
जब हम केवल अपने कर्तव्य पर ध्यान देते हैं और परिणाम की चिंता छोड़ देते हैं, तब मन शांत होता है, अहंकार मिटता है और कर्म स्वयं पूजा बन जाता है।
भगवान श्रीकृष्ण सिखाते हैं कि परिणाम हमेशा हमारे हाथ में नहीं होते, परंतु कर्म का संकल्प और समर्पण अवश्य हमारे नियंत्रण में है।
कर्मयोग का सार: क्यों आवश्यक है निष्काम कर्म
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फल की चिंता मन में अस्थिरता लाती है।
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निष्काम कर्म से मन शुद्ध और स्थिर रहता है।
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कर्म करते हुए ईश्वर में विश्वास रखने से सफलता और शांति दोनों प्राप्त होती हैं।
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यही मार्ग व्यक्ति को मोक्ष की ओर ले जाता है।
आधुनिक जीवन में इस श्लोक की प्रासंगिकता
आज के समय में जब हर व्यक्ति परिणाम और सफलता के पीछे भाग रहा है, गीता का यह श्लोक हमें संतुलन और धैर्य सिखाता है।
काम करें, पूरी लगन से करें, लेकिन फल की चिंता किए बिना — यही सच्चा कर्मयोग है।
जब कर्म पूजा बन जाता है, तो जीवन में हर कार्य ईश्वर को समर्पित हो जाता है।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन” केवल एक श्लोक नहीं, बल्कि जीवन जीने का एक गूढ़ दर्शन है।
यह हमें सिखाता है कि परिणाम से नहीं, कर्म से पहचान बनती है।
भगवान कृष्ण के इस उपदेश को जीवन में अपनाने वाला व्यक्ति न कभी निराश होता है और न ही भयभीत — क्योंकि वह जानता है कि कर्म ही सच्चा धर्म है।
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